दोगलों की बस्ती : ईमान का ऐलान…

दोगलों की बस्ती में
हम मशाल नहीं- जलता हुआ सूरज लेकर निकले हैं,
ताकि हर मुखौटा पिघले,
हर झूठ का बर्फ़-घर टूटे,
और हर सीढ़ी के नीचे छिपे साँप उजागर हों।

यहाँ ज़ुबानें दो-धारी हैं,
हाथों में रबर-स्टैम्प,
दिलों में रद्दी का ढेर।
हिसाब-किताब सब “डबल एंट्री” के,
रात को नैतिकता,
सुबह को मुनाफ़ा,
और दोपहर को माफ़ी।

जनाब!
यहाँ तालियाँ भी दोगली हैं-
सच पर कभी बजती नहीं,
झूठ पर टूटकर बरसती हैं।
यहाँ दीवारें कान लगाकर सुनती हैं,
और खिड़कियाँ सच से मुँह फेर लेती हैं।

हम आए हैं ईमान की बोली में-अब अनुवाद नहीं।
यहाँ समझौते के अक्षर नहीं,
केवल ऐलान के अक्षर होंगे-
जो दहकते हैं, दहला देते हैं,
और दफ़्तरों की फ़ाइलों में आग लगा देते हैं।

सुन लो, बस्तीवालो!
तुम्हारी चमक पॉलिश है-चरित्र नहीं;
तुम्हारी वफ़ादारी ड्यूटी-चार्ट है-ज़मीर नहीं;
तुम्हारा धर्म कार्ड-होल्डर है-करुणा नहीं;
तुम्हारी मुस्कान सेल्स-टॉक है-सच्चाई नहीं।

यहाँ क़ानून जेब में मुड़ा हुआ है,
और इंसाफ़ मेज़ पर काग़ज़वेट।
यहाँ क़समें बिकी हुई हैं,
और हस्ताक्षर चेक की तरह बाउंस।
कोई पूछे-“सच कितना?”
तो जवाब मिलता है-“डील पर निर्भर।”
कोई कहे-“चरित्र कहाँ?”
तो उत्तर-“सीवी में जोड़ देंगे, अगले इंटरव्यू तक।”

लेकिन आज-
हम अपनी आवाज़ को हथौड़ा बनाकर बोलेंगे।
हर वाक्य गिरेगा-ठक!
हर तर्क चलेगा-चिंगारी!
हर सवाल बनेगा-समन,
जिसे फाड़कर नहीं, पढ़कर जवाब देना होगा।

अब ईमानदारी कानों में फुसफुसाएगी नहीं,
चौराहों पर धौंकनी बनेगी।
अब “अगली बैठक” नहीं,
यहीं, अभी, इसी साँस में फ़ैसला होगा।
जो साथ हैं-कदम मिलाओ,
जो नहीं-रास्ता छोड़ो।
हम सच को भीख नहीं,
रास्ता दिलवाकर रहेंगे।

दोगलों की बस्ती, ध्यान से सुन लो-
हम नक़ाबों की इन्वेंट्री बनाकर
एक-एक चेहरा पुकारेंगे।
जो सच्चा निकले-सलाम,
जो झूठा निकले-बे-नक़ाब।
अब पदक चमड़ी पर नहीं,
मेहनत पर सिलेंगे।

लड़ाई किससे है?
हाज़िरी में दर्ज झूठ से,
मीटिंग की मिनट्स में दफ़्न सच से,
दरबारों में बिकती सिफ़ारिश से,
और उस मुस्कान से
जो “हाँ” कहकर “ना” कर जाती है।

हम फ़रियाद नहीं, फ़रमान लाए हैं-
कि ईमानदारी बहस नहीं, नियम है;
सच “ऑप्शनल” नहीं, डिफ़ॉल्ट है;
कायरता अब से ऑफ़लाइन है,
और हिम्मत 24×7 सर्वर पर चलेगी।

ख़बरदार!
आज के बाद जो भी “दोगलाई” की भाषा में
सच का सौदा करेगा,
हम उसकी ज़ुबान से कमीशन की जंग खुरच देंगे।
जो भी ईमान को “ड्राफ्ट” कहेगा,
हम उसी ड्राफ्ट में आँधी भर देंगे।

क्योंकि-
झूठ चाहे जितने शॉर्टकट बना ले,
अंततः सत्य ही फ़ाइनल प्रिंट होता है।
काला पानी भी
सच के नमक से साफ़ हो जाता है।
और डर की दीवार
पहले हँसी से, फिर हल्ले से,
आख़िरकार एक पत्थर से गिर ही जाती है।

तो सुन लो अंतिम ऐलान-
“दोगलाई का पासवर्ड रद्द;
ईमानदारी-एडमिन लॉगिन।”
अब फ़ाइलें खुलेंगी पारदर्शी मोड में,
और हर नोटिंग के नीचे लिखा होगा:
“सच संलग्न है।”

और अंततः-
हम तुम्हारी बस्ती के मुख्य फाटक पर लिख छोड़ेंगे-
“यहाँ से आगे दो-मुँहों का प्रवेश वर्जित।
एक चेहरा-एक आवाज़-एक ज़मीर,
तभी गुजरोगे।”

और यदि तुम फिर भी नहीं सुनोगे
तो हम चौराहे पर सच की भट्ठी जलाएँगे।
तुम्हारी हर तिकड़म
ईंट बनकर उसी में पक जाएगी।
और उन्हीं ईंटों से
हम नई बस्ती उठाएँगे
जहाँ ताज नहीं, तपन पहनी जाएगी;
जहाँ गवाही कोई काग़ज़ नहीं,
इंसान की आँख होगी;
और जहाँ ईमानदारी
घोषणापत्र नहीं
रोज़ की आदत होगी।

ऋषिकेश मिश्रा (स्वतंत्र पत्रकार)