नागरिक परिक्रमा
(संजय पराते की राजनैतिक टिप्पणियां)
1.
अमित शाह ने दिल्ली में दैनिक जागरण के पूर्व प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन की स्मृति में व्याख्यान दिया। व्याख्यान का विषय था : घुसपैठ, जन सांख्यिकी परिवर्तन और लोकतंत्र। नरेंद्र मोहन की वैचारिक प्रतिबद्धता किसी से छुपी हुई नहीं थी। वे भाजपा से राज्यसभा सदस्य थे। वे विचारधारात्मक रूप से संघी गिरोह के साथ थे और उनकी स्मृति में किसी व्याख्यान के होने का अर्थ संघी विचारधारा का प्रचार-प्रसार होना ही जो सकता था, जैसा कि अमित शाह ने अपने व्याख्यान के जरिए किया भी। व्याख्यान के लिए सुसज्जित मंच भी किसी समाचार पत्र के आयोजन का मंच नहीं लग रहा था, क्योंकि वह अखंड हिंदू राष्ट्र और सनातन का उदघोष करते हुए धार्मिक मंच के रूप में ही सज्जित था।

घुसपैठियों के बारे में बोलना इस समय भाजपा और संघी गिरोह का प्रिय शगल है। बिहार विधानसभा और उसके बाद होने वाले चुनावों में वे इसी नैरेटिव को सेट करना चाहते हैं कि हमारे देश के अस्तित्व को असली खतरा घुसपैठियों से हैं और इशारों में वे मुस्लिमों की ओर उंगली उठाते हैं। मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठियों से हमारे देश के भर जाने का वे शोर मचा रहे हैं। मुस्लिम इसलिए कि
संघी गिरोह को मुस्लिमों से ही दिक्कत है, हिंदू घुसपैठियों से नहीं। यदि कोई हिंदू घुसपैठिया है, तो वह संघी गिरोह के लिए शरणार्थी हैं, जिसको वे नागरिकता देना चाहते हैं।
किसी वैचारिक व्याख्यान की अपनी गरिमा होती है। पाठक और श्रोता यह अपेक्षा रखते हैं कि व्याख्यान देने वाला आंकड़ों को तोड़े मरोड़े बिना, ठोस तथ्यों और तर्कसंगत आधार पर अपनी बातों को रखेगा। लेकिन अमित शाह जैसे जुमलेबाजों से इतनी न्यूनतम अपेक्षा रखना भी गलत साबित हुआ। संघी गिरोह का एकमात्र उद्देश्य अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत फैलाना है और यही काम उन्होंने किया। आखिरकार, संघ के वफादार चाकर जो वे ठहरे।

अपने संबोधन में शाह ने घुसपैठियों को पहचान कर मतदाता सूची से उनका नाम डिलीट करने और अंततः उन्हें डिपोर्ट करने के प्रति मोदी सरकार की प्रतिबद्धता जताई है। स्पष्ट रूप से उनका इशारा पहले बिहार और अब पूरे देश में होने जा रहे एसआईआर की ओर है। इस देश का कोई भी नागरिक नहीं चाहेगा कि किसी भी घुसपैठिए का नाम मतदाता सूची में हो। चुनाव आयोग ने बिहार में एसआईआर की प्रक्रिया पूरी कर ली है और वर्ष 2003 की तुलना में लाखों मतदाताओं के नाम काट दिए गए हैं, लेकिन चुनाव आयोग यह बताने की स्थिति में नहीं है कि इन काटे गए लाखों नामों में कितने घुसपैठिए हैं। एक भी नहीं! साफ है कि यह मुद्दा मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए संघी गिरोह का राजनैतिक हथियार है।
गृहमंत्री ने कहा कि मुस्लिम आबादी 24.6 प्रतिशत की दर से बढ़ी है, जबकि हिंदू आबादी में 4.5 प्रतिशत की गिरावट आई है। मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर का आँकड़ा 2001 से 2011 के बीच का है। क़ायदे से इसी अवधि में हिंदू आबादी की वृद्धि दर की बात होगी, तभी तुलना हो पाएगी। हिंदू आबादी में आज तक निरपेक्ष गिरावट नहीं हुई है और न कभी नकारात्मक वृद्धि दर देखी गई है। वास्तविकता तो यह है कि जिस अवधि में मुस्लिम आबादी साढ़े चौबीस फ़ीसद की दर से बढ़ रही थी, उसी अवधि में हिंदू आबादी भी 16.8 फ़ीसद की दर से बढ़ रही थी। इसलिए अमित शाह के भाषण को ‘जुमलेबाजी’ के सिवा और किसी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यह व्याख्यानमाला की गरिमा को गिराने के सिवा और कुछ नहीं है। उन्हें यह भी ख्याल नहीं था कि कुछ बौद्धिक जन भी उनके इस कार्यक्रम में उपस्थित होंगे, जिनके लिए वे केवल जगहंसाई के पात्र ही बनेंगे।
दूसरी बात, क्या किसी व्यक्ति की भारतीय नागरिकता तय करने का अधिकार क्या चुनाव आयोग के पास है? यदि ऐसा है, तो फिर गृह मंत्रालय का क्या काम है, जिसका जिम्मा मोदी सरकार ने अमित शाह को दिया हुआ है? साफ है कि एसआईआर के बहाने मोदी सरकार चुनाव आयोग के जरिए पिछले दरवाजे से एनआरसी लागू करना चाह रही है। जबकि चुनाव आयोग का काम ऐसे सभी दावेदारों को मतदाता के रूप में पंजीकृत करने का है, जो अपने आपको भारतीय नागरिक बताते हुए सरकार द्वारा जारी अनेकानेक पहचान पत्रों में से किसी एक को पेश करते है, और इनमें आधार कार्ड भी शामिल है, जिसे स्वीकार करने का आदेश बिहार एसआईआर के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को दिया है। अब चुनाव आयोग मनमाने तरीके से किसी व्यक्ति को, उसके माता-पिता, दादा-दादी या नाना-नानी की नागरिकता स्थापित न होने के आधार पर, मतदाता सूची में पंजीकृत करने से इंकार नहीं कर सकता और इस आधार पर, न ही संबंधित व्यक्ति को घुसपैठिया करार दे सकता है। यदि चुनाव आयोग के इस मानदंड को लागू किया जाएगा, तो वास्तव में इस देश की अधिसंख्यक आबादी अपने आपको भारतीय नागरिक ही सिद्ध नहीं कर पाएगी और उसे मतदाता सूची से बाहर होना पड़ेगा। इस प्रकार, प्रभावित होने वालों में केवल अल्पसंख्यक मुस्लिम ही नहीं होंगे, सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े तमाम तबके भी शामिल होंगे। इस प्रकार, चुनाव आयोग इस देश के नागरिकों के सार्वभौमिक मताधिकार पर ही हमला कर रहा होगा, जिसकी इजाजत उसे कतई नहीं दी जा सकती।
मोदी सरकार यह दुष्प्रचार कर रही है कि हमारे देश में घुसपैठिए लोकतंत्र और देश के अस्तित्व के लिए खतरा बन चुके हैं। लेकिन ऐसी जुमलेबाजी करने से पहले उसे यह बताना चाहिए कि हमारे देश के लगभग 100 करोड़ मतदाताओं में से घुसपैठिए कितने हैं और उन्हें भारतीय नागरिकता से अलग करने के लिए इस सरकार ने स्थापित लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और कानून के तहत क्या कदम उठाए हैं? यदि पिछले दस सालों में घुसपैठियों के कारण मुस्लिम आबादी बढ़ी है, जैसा दावा अमित शाह ने अपने व्याख्यान में किया है, तो उसके लिए क्या सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती या उसकी उसकी कोई असफलता दर्ज नहीं की जाएगी? यदि शाह का दावा इतना मजबूत है कि हमारे देश में घुसपैठियों ने इतनी बड़ी संख्या में प्रवेश कर लिया है कि वे हमारी चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने और लोकतंत्र का हरण करने की ताकत रखते हैं, तो इस देश में एसआईआर बाद में होना चाहिए, घुसपैठियों को चिन्हित करने का काम पहले होना चाहिए। यदि शाह का दावा मजबूत है, तो खुद मोदी सरकार की वैधता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है, क्योंकि वह इस देश की आम जनता की नहीं, घुसपैठियों की सरकार मानी जाएगी। लेकिन वास्तविकता यही है कि अपने व्याख्यान में अमित शाह कोई तर्कसंगत बात नहीं कर रहे थे, केवल बकलौली कर रहे थे, ताकि संघी गिरोह की राजनीति को आगे बढ़ा सके।
इस देश में निवास करने वाला कोई व्यक्ति भारतीय नागरिक है या नहीं, इसे जानने के लिए निश्चित स्थापित प्रक्रिया है, जिसके इस्तेमाल पर किसी को भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती। इसकी छानबीन के लिए भारत सरकार का गृह मंत्रालय अधिकृत है। लेकिन कानूनी प्रक्रियाओं का सहारा लिए बिना, केवल संघी गिरोह के शक के आधार पर मुस्लिमों की धर-पकड़ की जा रही है और उन्हें एकतरफा तौर पर, घुसपैठिया कहकर हिरासत में रखा जा रहा है या डिपोर्ट करने की कोशिश की जा रही है। अब यह स्थापित तथ्य है कि ऐसे नागरिकों को, जिन्हें भारत सरकार साफ तौर पर बांग्लादेशी साबित नहीं कर पाई है, बांग्लादेश की सरकार ने भी उन्हें अपनाने से इंकार कर दिया है। ऐसे भी प्रकरण सामने आ गए हैं कि भारतीय नागरिकों को ही, जो मुस्लिम थे और बंगला भाषा बोलते थे, डिपोर्ट करने की कोशिश की गई है और बाद में सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। साफ है कि घुसपैठियों का मामला इतना आसान नहीं है और उसके साथ संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुसार, मानवाधिकार का मामला भी जुड़ा हुआ है। भारत सरकार ने इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर का, जिससे वह बंधी हुई है और मानवाधिकारों का, बार-बार उल्लंघन किया है। इससे मोदी सरकार को अंतर्राष्ट्रीय शर्मिंदगी भी झेलनी पड़ रही है। लेकिन शायद इस सरकार की प्राथमिकता में नफरत की घरेलू राजनीति करना ही है, चाहे इस देश की प्रतिष्ठा की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किरकिरी होती रहे।
साफ है कि गृह मंत्रालय अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करेगा और चुनाव आयोग अपनी संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए संघी गिरोह के एजेंट के रूप में काम करेगा, तो इस देश में संविधान और लोकतंत्र दोनों खतरे में है। देशव्यापी एसआईआर के निर्णय के बाद यह खतरा बिहार की सीमा से बाहर पैर पसार रहा है। वास्तव में मोदी सरकार एसआईआर के बहाने उस जनता को चुनना चाहती है, जो बार-बार उसे गद्दी में बैठाए और हिंदू राष्ट्र के उसके फासीवादी उद्देश्य को पूरा करने के लिए नफरत की हुंकार लगाए। देश की धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक ताकतों के सामने आज यह सबसे बड़ी चुनौती है।
2. नोबेल शांति पुरस्कार अब ट्रंप के चरणों में
ट्रंप हार गए, लेकिन सीआईए की एजेंट जीत गयी! नोबेल पुरस्कार कमेटी के प्रति ट्रंप का गुस्सा अब थोड़ा शांत हो जाना चाहिए। नोबेल शांति पुरस्कार मारिया कोरिना मचाडो को मिल गया है। वे ट्रंप की प्रिय पात्र हैं, क्योंकि वेनेजुएला में अमेरिकी हितों की रक्षक है। उनसे बड़ा अमेरिका का कोई पैरोकार ट्रंप को नहीं मिला है, जो देश की संपत्ति अमेरिका को बेचने/ सौंपने की ऐसी ढीठ तरफदारी करे।
महात्मा गांधी को यह पुरस्कार कभी नहीं मिला, इसके बावजूद कि समकालीन दुनिया में शांति और अहिंसा का उनसे बड़ा कोई योद्धा पैदा नहीं हुआ। उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े क्रूर शासक और लुटेरे साम्राज्यवादी अंग्रेज़ों को भी झुकाकर दिखा दिया। जिस अंग्रेजी राज का सूरज दुनिया में डूबता नहीं था, वह भारत में अस्त हुआ और अंग्रेजों को बोरिया बिस्तर समेटकर भागना पड़ा।यह गांधीजी ही थे, जिन्होंने फिलिस्तीन मुक्ति आंदोलन का खुलकर समर्थन किया था। अटल बिहारी की भाजपा सरकार सहित स्वतंत्र भारत की सरकारों को भी उनके दिखाए इस रास्ते पर अमल करना पड़ा। लेकिन महात्मा गांधी को शांति का नोबेल पुरस्कार कभी नहीं मिला।
लेकिन यह उन लोगों को जरूर दिया गया है, जिन्होंने युद्ध को बढ़ावा दिया और अनगिनत निर्दोषों की हत्या की। नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाले युद्ध-प्रेमियों की सूची काफी लंबी है। नोबेल विजेता वुडरो विल्सन ने 12 देशों पर हमला किया था और अमेरिका को प्रथम विश्व युद्ध में शामिल करने को सही ठहराने के लिए झूठ का सहारा लिया। एफडीआर के विदेश मंत्री कॉर्डेल हल को नाज़ी जर्मनी से भाग रहे यहूदी शरणार्थियों के अमेरिकी प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद नोबेल पुरस्कार दिया गया। विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर और उनके वियतनामी समकक्ष ले डुक थो को संयुक्त रूप से 1973 में वियतनाम शांति समझौते के लिए नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था, फिर भी किसिंजर ने हस्ताक्षर करने के तुरंत बाद ही इस समझौते को तोड़ दिया था। दक्षिण वियतनामी सरकार ने राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चे पर अपने हमले फिर से शुरू कर दिए और अमेरिका ने उत्तरी वियतनाम पर बमबारी फिर से शुरू कर दी थी और यह युद्ध 1975 तक समाप्त नहीं हुआ था। वियतनाम ने इस युद्ध में साम्राज्यवादी अमेरिका की जो दुर्गति की, अब वह इतिहास का विषय है। बराक ओबामा भी अन्य नोबेल विजेताओं की तरह एक युद्ध-प्रेमी ही हैं। पदभार ग्रहण करने के कुछ ही समय बाद उन्होंने अफ़ग़ान युद्ध में 17,000 अतिरिक्त सैनिकों को भेजने का आदेश दिया था और लीबिया पर बमबारी करके उसे तबाह कर दिया। उन्होंने इराक में बुश के युद्ध को जारी रखा और इज़राइल का समर्थन किया। युद्ध-पिपासुओं को नोबेल शांति पुरस्कार मिलना ही इस पुरस्कार के चरित्र को दर्शाता है।
इतिहास का यह कड़वा सबक है कि दुनिया में स्थाई शांति साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़कर ही हासिल की जा सकती है। जो लोग नफरत फैलाने, युद्ध का वातावरण बनाने और अपने देश के हथियार उद्योग के मुनाफे के लिए युद्ध आयोजित करने के दोषी हैं, जिन पर मानवता को बर्बरतापूर्वक कुचलने का कभी न मिटने वाला दाग लगा है, ऐसे लोगों को शांति के नाम पर कोई पुरस्कार दिया जाता है, तो यकीन मानिए कि उस पुरस्कार का चरित्र विशुद्ध राजनैतिक और युद्धोन्मादी ही होगा। शांति के नोबल पुरस्कार का चरित्र भी ठीक ऐसा ही है।
और अब, इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया है मारिया कोरिना मचाडो को। यह एक ऐसी महिला है, जिसने वेनेज़ुएला पर अमेरिकी सैन्य आक्रमण की ट्रम्प की योजना का सार्वजनिक रूप से समर्थन किया है और अमेरिकी नौसेना द्वारा वेनेज़ुएलावासियों की न्यायेतर हत्या का समर्थन किया है। उसने जनता द्वारा निर्वाचित वेनेजुएला की सरकार पलटने के लिए इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू और अर्जेन्टीना के राष्ट्रपति से सेना भेजने की अपील की थी। वह नरसंहारकारी इज़राइल राज्य का समर्थन करती है और राष्ट्रपति चुनाव जीतने पर अपनी एम्बेसी जेरुशलम में स्थानान्तरित करके इजरायल को पूर्ण समर्थन देने का ऐलान किया था। वह गाजा में इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों के जनसंहार का खुला समर्थन करती है। वह अमेरिका की इच्छानुसार वेनेजुएला के तेल संसाधनों का निजीकरण करके उसे अमेरिका के हाथ में सौंपना चाहती है। बेंजामिन नेतन्याहू, जिसे अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने युद्ध अपराधी घोषित किया है, का उसकी कारगुज़ारियों के लिए खुले आम समर्थन करती है। इस वर्ष का नोबेल शांति पुरस्कार जिसे दिया गया है, वह मारिया कोरिना मचाडो ‘देशभक्ति और शांति की’ इतनी सारी खूबियों से सुसज्जित हैं! स्वाभाविक है कि उसने अपना यह पुरस्कार ट्रंप के चरणों में रख दिया है, लेकिन लगता नहीं है कि इससे ट्रंप की नाराजगी कुछ कम होगी।
ट्रंप की नाराजगी के बावजूद साम्राज्यवादी मीडिया का मचाडो को लेकर बल्ले-बल्ले करना आसानी से समझ में आता है।
(टिप्पणीकार अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)