स्वावलंबन की एक झलक पर…! : राजेंद्र शर्मा

राजनैतिक व्यंग्य-समागम

1.

पहले हिंडनबर्ग ने और अब वाशिंगटन पोस्ट ने किस पर हमला किया है – राष्ट्र सेठ पर, राष्ट्र सेठ की दौलत पर, राष्ट्र सेठ के साम्राज्य पर। हिंडनबर्ग भी विदेशी और वाशिंगटन पोस्ट भी विदेशी। और विदेशी अमेरिका का सिक्यूरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन भी, जिसने हमारे राष्ट्र सेठ के लिए घूसखोरी के मामले में समन भेजे हैं।

पर अमेरिका वाले समन भेजते समय यह भूल गए कि अब भारत में मोदी जी की यानी भारत-भक्ति फर्स्ट वाली सरकार है। और वह भी छप्पन इंच की छाती वाली सरकार। समन जारी करने वाले अमेरिकी विभाग और समन का निशाना बनने वाले राष्ट्र सेठ के बीच, मोदी सरकार फौलादी दीवार बनकर खड़ी है। बाहर से कोई भी समन, बल्कि कोई भी प्रहार आएगा, उसे पहले इस फौलादी दीवार से टकराना होगा। यह बीमा से भी बढक़र बीमा का, मोदी जी की गारंटी का मामला है। बीमा की सुरक्षा में कभी कोई चूक हो भी जाए, मोदी जी की गारंटी में कभी चूक नहीं हो सकती।

सेठों के लिए गारंटी में तो अपने मोदी जी, गारंटी के भी पूरा होने की गारंटी करते हैं, जैसी डबल गारंटी की बात कभी-कभी चुनाव के टैम पर पब्लिक से भी कहते हैं।

और हां! इससे फर्क नहीं पड़ता है कि हिंडनबर्ग ने भारत सेठ की भारतीय शेयरधारकों से ठगी का खुलासा किया था। अमेरिकी सिक्यूरिटीज कमीशन ने भारत सेठ के खिलाफ भारतीय अधिकारियों को घूस देने का मामला बनाया है। वाशिंगटन पोस्ट ने, भारतीय जीवन बीमा निगम के 32 हजार करोड़ रुपये से, भारत सेठ की अवैध तरीके से मदद किए जाने का और वह भी मोदी सरकार के कहने पर मदद किये जाने का भंडा फोड़ किया है।

भारत में हुआ, तो क्या हुआ ; जुर्म भारत वालों के खिलाफ हुआ, तो क्या हुआ ; नुकसान भारत का हुआ, तो क्या हुआ – उंगली उठाने वाले तो विदेशी हैं।

जुर्म करने वाला, जुर्म की मार खाने वाला, जुर्म कराने वाला, सब स्वदेशी हैं, जबकि सवाल उठाने वाला विदेशी। इक्का-दुक्का देसी भी सवाल उठा रहे होंगे, पर विदेशियों के सवाल उठाने के बाद, विदेशियों की नकल पर। विदेशियों की नकल करने वालों का भारतीय होना भी कोई भारतीय होना है, लल्लू! अमृत काल में मोदी जी भारत को ऐसे नकली भारतीयों से ही तो मुक्त करा रहे हैं। यानी यह सिर्फ भारत सेठ की रक्षा की नहीं, स्वदेशी की रक्षा की लड़ाई है और वह भी रूसी तेल खरीदें कि नहीं खरीदें टाइप की छोटी-मोटी नहीं, बड़ी वाली लड़ाई। एक महाकाव्यात्मक लड़ाई। स्वदेशी की रक्षा की इससे बड़ी लड़ाई क्या होगी? और अब कोई कुछ भी कहे, बात कुछ भी हो, हम तो स्वदेशी की रक्षा करने वालों के साथ हैं, और आप!

और ये वाशिंगटन पोस्ट वालों ने ऐसा क्या नया भंडाफोड़ कर दिया है, जिसका अमेरिका से लेकर भारत तक, सभी मोदी विरोधी शोर मचा रहे हैं? भारत सेठ की कंपनियों की मुश्किल के वक्त में मदद करने के लिए जिस एलआईसी के 32 हजार करोड़ रुपये लगाने के भंडाफोड़ की बातें की जा रहीं हैं, वह किस की है? भारत की। एलआईसी में लगा पैसा किस का है– भारत के लोगों का! एलआइसी का नफा-नुकसान किस का है, भारत के लोगों का!

जिस भारत सेठ की कंपनियों को फायदा पहुंचाने के आरोप लगाए जा रहे हैं, वह सौ टंच भारतीय है, यह तो हम पहले ही सिद्ध कर चुके हैं। और रही बात मोदी सरकार की, जिस पर एजी समूह को इस तरह अनुचित फायदा पहुंचवाने का इल्जाम लगाया जा रहा है, उसका तो खुद ही सबकी भारतीय नापने और सब को पर्याप्त भारतीय होने न होने के सर्टिफिकेट बांटने का स्पेशलाइजेशन है। उसकी भारतीयता पर सवाल उठाने वाला इस धरती पर पैदा नहीं हुआ और अगर पैदा हो भी गया, तो धरती के जेल वाले हिस्से में ही पाया जाएगा यानी सवाल उठाने लायक ही नहीं रह जाएगा। जेल में सवाल उठाया, किसने सुना? जब यह भारतीयों द्वारा, भारतीयों को और भारतीयों के हिस्से से फायदा पहुंचाने का मामला है, तो इसमें अमेरिकियों को इतनी ताक-झांक करने की क्या जरूरत है? ये हमारे घर के अंदर की बात। दूर हटो, दूर हटो ए दुनिया वालो, ये मामला हमारा है!

और सबसे बड़ी बात ये एलआईसी का राष्ट्र सेठ की या किसी की भी मदद करना, भला जुर्म कैसे हो गया? एलआईसी का तो काम ही इंश्योरेंस यानी भरोसा देने का है। और इंश्योरेंस वाला भरोसा तो होता ही इसलिए है कि वक्त, जरूरत पर काम आए। राष्ट्र सेठ का मुश्किल टैम था। अमेरिका वालों ने समन जारी कर दिए। भारत में घूसखोरी हुई, उसके लिए भाई लोगों ने अमेरिका में मामले-मुकदमे शुरू कर दिए? पर उसका भी क्या रोना रोएं। अमेरिकियों की दूसरों के फटे में पांव फंसाने की बुरी आदत है। खुद इनके हिसाब से घूस लेने वाला, घूस देने वाला, घूस दिलाने वाला, सब भारत में थे, बल्कि सर्टिफाइड भारतीय थे, फिर भी मामला-मुकदमा अमेरिका में। क्या यह भारत के साथ खुल्लम खुल्ला अन्याय नहीं है? और इस अन्याय की वजह से जब हमारे राष्ट्र सेठ की तरफ से बाजार ने मुंह फेर लिया, बैंकों ने उनकी कंपनियों में पैसा लगाना बंद कर दिया, तब एलआईसी जीवन रक्षक बनकर सामने आयी। और यही तो एलआईसी का काम है। बल्कि यही तो उसका कमाई का मॉडल है। एलआईसी ने वाशिंगटन पोस्ट के जवाब में एकदम सही कहा है — हम यह नहीं बताएंगे कि हमने क्या किया है, पर जो किया है, बहुत सोच-समझकर किया है? और किसी के कहने से नहीं, सिर्फ और सिर्फ अपने मन से किया है। नफा हो या नुकसान हो, मेरी मर्जी!

और कोई चोरी थोड़े ही है, जो हो रहा है, छाती ठोक के हो रहा है। मोदी जी ने तो पहले ही कह दिया था कि अब बस स्वावलंबन होगा। हम हर्गिज बर्दाश्त नहीं करेंगे कि कोई बाहर वाला आकर, हमारे यहां हो रही ठगी, बेईमानी को, ठगी और बेईमानी कहकर भारत को बदनाम करे। रही देश वालों की बात, तो स्वावलंबन का विरोध करने की इजाजत तो उन्हें भी नहीं दी जाएगी। राष्ट्र सेठ हमारा। राष्ट्र सेठ की मदद करने वाली एलआईसी हमारी। राष्ट्र सेठ की मदद कराने वाली सरकार हमारी। इससे ज्यादा स्वावलंबन क्या होगा? और जब इतना स्वावलंबन हो रहा है, किसी को भ्रष्टाचार-व्रष्टाचार की बात करनी चाहिए क्या? बचपन में पढ़ा था – स्वावलंबन की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष! कहां कुबेर का कोष और कहां सिर्फ 32 हजार करोड़ रुपये! हंगामा है क्यों बरपा, राष्ट्र सेठ की थोड़ी सी ही तो मदद की है।

(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)


2. अब बवेला खड़ा किया जा रहा है : विष्णु नागर

अब बवेला खड़ा किया जा रहा है कि सात सदस्यीय लोकपाल के लिए 70-70 लाख रुपयों की सात महंगी कारें क्यों खरीदी जा रही हैं, जबकि काम-धाम के नाम पर ये शून्य हैं! आराम फरमाने के लिए सरकार ने इन्हें बंगले दे रखे हैं, सोफों से लेकर जरूरत की हर चीज़ दे रखी है, सुसज्जित आफिस में लमलेट होने के लिए लंबे-चौड़े कक्ष दिए हैं। आराम का इतना प्रबंध क्या कम है, जो इन्हें लंबी-चौड़ी कारें भी चाहिए?

बताया जा रहा है 140 करोड़ की आबादी के इस देश में लोकपाल के पास कुल 8703 शिकायतें आई हैं। इनमें से भी इन्होंने अभी तक केवल 24 मामलों की जांच की है और रिश्वतखोरी के सिर्फ छह मामलों में मुकदमा चलाने की अनुमति दी है।काम का इनका इतना ‘शानदार ‘ रिकार्ड होते हुए भी इन्हें सुप्रीम कोर्ट के जजों से अधिक शानदार कारें किसलिए चाहिए? जज तो सप्ताह में पांच दिन जमकर काम करते हैं, मगर बेहतरीन कारें इन्हें चाहिए, जो लगभग कुछ नहीं करते!

वैसे यह भी कोई सवाल हुआ? आप यह बताइए कि काम और कार का क्या कभी कोई संबंध रहा है? मजदूर सबसे ज्यादा मेहनत करता है। उसके पास किसी ने आज तक कार या स्कूटर भी देखा? खेत मजदूर क्या कार से खेत जोतने -काटने जाता है और कार से ही झोपड़ी में लौटता है? इसलिए सरकारी काम और कार का अगर कोई रिश्ता है, तो वह यह कि जिसके पास जितना कम काम है, उसके पास उतनी ही बड़ी कार है और उतना ही शानदार बंगला है!

जिनके पास मर्सिडीज बेंज एस- 600 कार है, वे दिनभर पत्थर नहीं तोड़ते! दिनभर फाइलों में भी डूबे नहीं रहते! फिर भी कार उनके पास दस करोड़ की है! जिन प्रधानमंत्री के साथ 12-12 करोड़ की कारों का पूरा काफिला चलता है, वे उद्घाटन, आधारशिला रखने, रोड शो करने, चुनाव प्रचार करने, विदेश यात्राएं करने, मंदिर में पूजा-अर्चना करने और अपनी आराधना करवाने या इससे या उससे बदला लेने, किसी का मुंह खुलवाने और किसी का मुंह बंद करवाने, किसी को जेल भेजने के अलावा क्या करते हैं? कल को तो आप कहेंगे कि उनके पास भी करोड़ों की कारों का काफिला नहीं होना चाहिए! और क्या अमित शाह वगैरह दूसरे मंत्री सस्ती कारों में चलते हैं? उनकी कार करोड़ों की नहीं होगी? और ये जितने सब मुख्यमंत्री हैं, सब बेहद सादगी से रहते हैं क्या? क्या सस्ती अल्टो कार में चलते हैं? ये उसमें चल ही नहीं सकते! इनकी टांगें अकड़ जाएंगी, इनका मुंह टेढ़ा हो जाएगा, पांवों में कांटे चुभने लगेंगे! उनके ‘पद की गरिमा’ का सत्यानाश हो जाएगा! आप क्या यह कहेंगे कि ये सब तो प्रदेश और देश की सेवा करने के लिए खून-पसीना बहाते हैं, लेकिन सात लोकायुक्त निठल्ले बैठे रहते हैं? नहीं, ये भी दरअसल उतना ही काम करते हैं, जितना कि सुबह से शाम तक हमारे प्रधानमंत्री, गृहमंत्री वगैरह करते हैं! हां, अगर चुनावी रैलियों में भाषण देना, रोड शो करना, दिन में छह बार कपड़े बदलना, चेहरे का रंग-रोगन करवाना भी अगर देशसेवा है, तो क्षमा कीजिए, ये नहीं करते! अगर इन्हें ये काम भी सौंप दिया जाए तो शायद ये इसे भी कर दिखाएं!मगर तब ये मांग करेंगे कि हमारा काम इतना बढ़ गया है, तो अब हमारा काम 70 लाख की कार से नहीं चल सकता, कम से कम पांच करोड़ की कार हमें मिलनी चाहिए! इस पर आप फिर से बवाल मचाओगे!

सुनिए भाईसाहबो और बहनो, सरकार में बड़े पदों पर नियुक्तियां इस कारण नहीं होतीं कि उन्हें बहुत जिम्मेदारी के साथ बहुत कुछ कर दिखाना है, अपना सर्वश्रेष्ठ देना है, बल्कि इसलिए कि कुछ नहीं करना है! काम करेंगे, तो सवाल उठेंगे। सवाल उठेंगे तो बवाल होगा और बवाल होगा, तो प्रधानमंत्री की इमेज खराब होगी! लोग अडानी-अंबानी का नाम स्मरण पर उतर आएंगे, एंटायर पोलिटिकल साइंस के विश्व के एकमात्र विद्वान को चौथी फेल, दसवीं पास, अनपढ़ आदि उपाधियों से विभूषित करने लगेंगे!

अच्छा आप स्वयं भगवान की कसम खाकर बताइए कि कार-विवाद से पहले आपमें से कितनों को याद था कि इस देश में लोकपाल नामक एक संस्था भी है, जिसके अभी सात सदस्य हैं! ऐसे पद आमतौर पर सरकार के बेहद वफादारों के लिए आरक्षित होते हैं और बाकी जो बचते हैं, वे कारपोरेट घरानों में एडजस्ट कर दिए जाते हैं।इस तरह रिटायर होकर भी ये अफसर रिटायर नहीं होते! इन्हें वफादारी का इनाम इसलिए भी देना जरूरी है, ताकि वर्तमान जज-अफसर आदि भी वफादारी का सबक अच्छी तरह सीख लें। उनका भरोसा बना रहे कि प्रधानमंत्री-मंत्री-मुख्यमंत्री उन्हें भी रिटायरमेंट से पहले पुरस्कृत करेंगे, वरना अफसर दस से पांच काम करेंगे।बीच में लंच करने आईआईसी या हेबिटाट सेंटर में दो घंटे गुजारेंगे। फिर शाम के छह बजते ही ताश खेलने, दारू पीने, मुर्गा खाने चले जाएंगे क्योंकि ईमानदार बड़े अफसरों को भी इतनी तनख्वाह तो मिलती है कि वे दोपहर और शाम को किसी शानदार क्लब की सेवाएं ले सकें! अफसर की जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी-वफादारी होती नहीं। होती है प्रधानमंत्री-मंत्री आदि के प्रति! और कोई सरकार इतनी मूर्ख नहीं होती कि अपने वफादारों को उपकृत न करे!

इसलिए ये मौज-मजे करने के पद हैं! सत्तर लाख की कार ये लेना चाह रहे हैं, ये भूल जाओ! भूल जाओ कि जो तरह-तरह के कर तुम देते हो, उस पैसे से ही ये सुख-सुविधाएं भोग रहे हैं। वैसे भी इतनी बड़ी भारत सरकार के करोड़ों के बजट में से लोकायुक्तों की कारों पर कुल पांच करोड़ ही तो खर्च होंगे? इतना खर्च तो प्रधानमंत्री की एक दिन की स्वदेश यात्रा पर हो जाता है मितरो। जनता का पैसा है, जो लूट सकता है, लूटे। अंबानी-अडानी लूट रहे हैं, मंत्री, नेता, अफसर लूट रहे हैं, दलाल और ठेकेदार लूट रहे हैं, तरह-तरह के ठग लूट रहे हैं, तो ये भी बेचारे चुल्लूभर लूट ले रहे हैं। कबीरदास कह गए हैं कि राम नाम की लूट है,लूट सके सो लूट, अंतकाल पछतायेगा, जब प्राण जाएंगे छूट।

तो भारत में लूट की महत्ता पुरानी है। आज से छह
सौ साल पहले राम का नाम की लूट मची थी, अब उसकी जगह सरकारी धन ने ले ली है, इसलिए प्राण छूट जाने से पहले ये सब प्रेमपूर्वक इसे लूट लेना चाहते हैं, तो इस पर शोक नहीं मनाना चाहिए!

(कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर साहित्यकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं। जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।)