अरावली पर्वतमाला विवाद- खनन संरक्षण और सुप्रीम कोर्ट के नए नियमों का समग्र अंतरराष्ट्रीय विश्लेषण

अरावली पर्वतमाला भारतीय उपमहाद्वीप की पर्यावरणीय रीढ़, जलवायु संतुलन का आधार और रेगिस्तान को रोकने वाली प्राकृतिक दीवार है

अरावली पर्वतमाला विवाद को खनन बनाम पर्यावरण की सरल बहस में सीमित करना गलत होगा, इस मुद्दे पर केवल सोशल मीडिया के नारों पर नहीं बल्कि तथ्यों विज्ञान और कानून के आधार पर संवाद हो- एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र

गोंदिया- वैश्विक स्तरपर अरावली पर्वतमाला केवल भारत की एक भौगोलिक संरचना नहीं है,बल्कि यह भारतीय उपमहाद्वीप की पर्यावरणीय रीढ़,जलवायुसंतुलन का आधार और रेगिस्तान को रोकने वाली प्राकृतिक दीवार है। लगभग 200 करोड़ वर्ष पुरानी यह पर्वतमाला मानव सभ्यता से भी कहीं अधिक प्राचीन है। किंतु विडंबना यह है कि आधुनिक विकास,खनन,शहरीकरण और नीतिगत अस्पष्टताओं के चलते आज यही पर्वतमाला अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। हाल ही में खनन से जुड़े नए नियमों और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को लेकर सोशल मीडिया पर # सेव अरावाल्ली जैसे हैशटैग ट्रेंड कराए जा रहे हैं। आरोप लगाए जा रहे हैं कि ये नियम अरावली को बचाने के बजाय उसे कमजोर करेंगे।मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं क़ि इस पृष्ठभूमि में यह आवश्यक हो जाता है कि पूरे विवाद का तथ्यात्मक, कानूनी वैज्ञानिक और अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोशल प्रिंटर इलेक्ट्रिक मीडिया पर चल रहे विचारों के आदान- प्रदान व डिबेट क़ा समग्र विश्लेषण किया जाए, जो मीडिया में आ रही जानकारी के आधार पर है।


साथियों बात कर हम अरावली पर्वतमाला, भौगोलिक विस्तार और ऐतिहासिक महत्व को समझने की करें तो अरावली पर्वतमाला भारत के पश्चिमी भाग में गुजरात, राजस्थान,हरियाणा और दिल्ली तक फैली हुई है और इसका कुल क्षेत्रफल लगभग 1,47,000 वर्ग किलोमीटर है।यह पर्वतमाला गुजरात के पालनपुर से शुरू होकर दिल्ली तक जाती है।अरावली की सबसे ऊंची चोटी गुरु शिखर (1722 मीटर) माउंट आबू में स्थित है। यह पर्वतमाला थार रेगिस्तान को पूर्व की ओर फैलने से रोकती है और उत्तर भारत के भूजल स्तर,मानसून पैटर्न और जैव विविधता को संतुलित रखने में निर्णायक भूमिका निभाती है।इतिहास की दृष्टि से अरावली ने हड़प्पा सभ्यता, राजपूत राज्यों और मुगल काल में भी जल स्रोतों,खनिजों और प्राकृतिक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य किया।अंतरराष्ट्रीय भूवैज्ञानिक मानकों के अनुसार इतनी प्राचीन पर्वतमालाएं पृथ्वी पर बहुत कम बची हैं, इसलिए अरावली का संरक्षण केवल भारत नहीं बल्कि वैश्विक पर्यावरणीय जिम्मेदारी भी है।खनिज संपदा और खनन का आकर्षणअरावली पर्वतमाला खनिज संसाधनों से भरपूर है।यहां तांबा, जिंक, लेड, ग्रेनाइट, मार्बल और कॉपर जैसे मूल्यवान खनिज पाए जाते हैं। औद्योगिक विकास और निर्माण क्षेत्र की बढ़ती मांग ने अरावली को खनन उद्योग के लिए अत्यंत आकर्षक बना दिया।विशेषकर राजस्थान और हरियाणा में दशकों तक अनियंत्रित और अवैध खनन हुआ, जिससे पहाड़ों का क्षरण, जंगलों का विनाश और जल स्रोतों का सूखना शुरू हो गया।यही वह बिंदु है जहां विकास और संरक्षण के बीच टकराव पैदा होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यही बहस अमेज़न, एंडीज़ और अफ्रीकी रिफ्ट वैली में देखी गई है।
साथियों बात अगर हम चार राज्यों, चार अलग- अलग नियम,भ्रम और पारदर्शिता का संकट इसको समझने की करें तो, अरावली पर्वतमाला चार राज्यों में फैली होने के कारण हर राज्य के अपने-अपने खनन और पर्यावरणीय नियम थे। कहीं पहाड़ियों की परिभाषा अलग थी, कहीं ऊंचाई की सीमा नहीं थी, तो कहीं वन क्षेत्र की पहचान अस्पष्ट थी।इस असमानता के कारण न केवलप्रशासनिक भ्रम पैदा हुआ बल्कि खनन माफिया ने भी इसी अस्पष्टता का लाभ उठाया।अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण शासन (इंविरोंमेन्टल गवर्नेंस) के सिद्धांतों के अनुसार, साझा प्राकृतिक संसाधनों के लिए एकरूप नियमों की आवश्यकता होती है। इसी सिद्धांत के तहत अरावली के लिए भी एक समान नीति की मांग लंबे समय से उठ रही थी।


साथियों बात अगर हम सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप- न्यायपालिका की निर्णायक भूमिका इसको समझने की करें तो, पर्यावरण संरक्षण के मामलों में भारतीय सुप्रीम कोर्ट की भूमिका वैश्विक स्तर पर सराही जाती है। गंगा, यमुना, ताज ट्रेपेज़ियम और वनों के संरक्षण में कोर्ट के हस्तक्षेप मिसाल रहे हैं। अरावली के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने इस गंभीरता को समझते हुए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया।इस समिति में पर्यावरण मंत्रालय, फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया,चारों राज्यों के वन विभाग के अधिकारी और स्वयं सुप्रीम कोर्ट के प्रतिनिधि शामिल थे। यह संरचना अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण आयोगों के अनुरूप थी, जहां नीति, विज्ञान और न्याय का सटीक समन्वय होता है। समिति की सिफारिशें और नवंबर 2025 की मंजूरी-समिति ने विस्तृत सर्वेक्षण,उपग्रह चित्रों, भूवैज्ञानिक डेटा और पर्यावरणीय प्रभावआकलन के आधार पर अपनी सिफारिशें सुप्रीम कोर्ट को सौंपीं।नवंबर 2025 में कोर्ट ने इन सिफारिशों को मंजूरी दी।यही वे सिफारिशें हैं जो आज विवाद का केंद्र बनी हुई हैं।पहली सिफारिश,100 मीटर ऊंचाई की परिभाषा-नई व्यवस्था के अनुसार, सिर्फ 100 मीटर या उससे ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली पर्वतमाला का हिस्सा माना जाएगा।ऐसे क्षेत्रों में खनन पूरी तरह प्रतिबंधित होगा।आलोचकों का कहना है किइससे 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को खनन के लिए खोल दिया जाएगा।किंतु समिति का तर्क है कि वैज्ञानिक रूप से पर्वतमाला की पहचान ऊंचाई, निरंतरता और भूगर्भीय संरचना से होती है।अंतरराष्ट्रीय भूवैज्ञानिक मानकों में भी पर्वत और पहाड़ी के बीच यही अंतर किया जाता है।दूसरी सिफारिश,500 मीटर निरंतरता का सिद्धांत-दूसरा महत्वपूर्ण नियम यह है कि यदि 100 मीटर से ऊंची दो पहाड़ियों के बीच की दूरी 500 मीटर से कम है, तो उस पूरे क्षेत्र को अरावली पर्वत श्रृंखला माना जाएगा और वहां खनन नहीं होगा।यहनियम पर्वतमाला की भौगोलिक निरंतरता को बचाने के लिए है, ताकि खनन के कारण पहाड़ टुकड़ों में न टूट जाएं।यह सिद्धांत यूरोपियन अल्प्स और अमेरिकी अपलाचियन पर्वतमालाओं में भी अपनाया जाता है।सरकार का पक्ष- 90 प्रतिशत क्षेत्र संरक्षित सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इन नियमों के लागू होने से अरावली का करीब 90 प्रतिशत क्षेत्र संरक्षित हो जाएगा। खनन केवल 0.19 प्रतिशत क्षेत्र,यानी लगभग 278 वर्ग किलोमीटर में ही संभव होगा। सरकार का दावा है कि इससे अवैध खनन रुकेगा, नियमों में स्पष्टता आएगी और पर्यावरणीय निगरानी बेहतर होगी।
साथियों बातें कर हम सोशल मीडिया बनाम तथ्य- # सेव अरावल्ली विवाद इसको समझने की करें तो, सोशल मीडिया पर चल रहे अभियानों में भावनात्मक अपील अधिक और तथ्य कम दिखाई देते हैं। कई पोस्ट्स में यह दावा किया गया कि अरावली को कानूनी रूप से खत्म किया जा रहा है,जबकि वास्तविकता यह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश संरक्षण को कानूनी मजबूती प्रदान करते हैं।यह प्रवृत्ति वैश्विक स्तर पर भी देखी जाती है, जहां जटिल पर्यावरणीय नीतियों को सरल नारों में प्रस्तुत कर भ्रम फैलाया जाता है।
साथियों बात अगर हम अंतरराष्ट्रीय तुलना,भारत की नीति कहां खड़ी है इसको समझने की करें तो,यदि हम ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और चिली जैसे देशों से तुलना करें, तो वहां खनन की अनुमति केवल सीमित नियंत्रित और वैज्ञानिक रूप से परिभाषित क्षेत्रों में दी जाती है। भारत में अरावली के लिए बनाए गए नए नियम इसी वैश्विकमानक के अनुरूप हैं।वास्तविक चुनौती,नियम नहीं,उनका क्रियान्वयन अरावली संकट की जड़ केवल नियमों में नहीं,बल्कि उनके ईमानदार क्रियान्वयन में है।यदिस्थानीय प्रशासन, पर्यावरणीय मंजूरी प्रक्रिया और निगरानी तंत्र मजबूत नहीं हुए, तो सबसे अच्छे नियम भी निष्प्रभावी हो सकते हैं।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे क़ि संरक्षण बनाम भ्रम,अरावली पर्वतमाला विवाद को केवल खनन बनाम पर्यावरण की सरल बहस में सीमित करना गलत होगा। सुप्रीम कोर्ट के नए नियम, यदि सही संदर्भ में देखें, तो वे अरावली को बचाने का एक ठोस कानूनी ढांचा प्रदान करते हैं। आवश्यकता है कि इस मुद्दे पर तथ्य, विज्ञान और कानून के आधार पर संवाद हो, न कि केवल सोशल मीडिया के नारों पर।अरावली का संरक्षण केवल आज की पीढ़ी के लिए नहीं, बल्कि आने वाली सदियों के लिए भारत की जल, जलवायु और जीवन सुरक्षा का प्रश्न है।

-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र 9284141425