महात्मा अब बापू बने, जिनके रूप अनेक!


(आलेख : संजय पराते)

इस देश में महात्मा केवल एक है — महात्मा गांधी, रघुपति राघव राजाराम वाले महात्मा गांधी। वहीं महात्मा गांधी, जो इस देश की बहुलतावादी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं और जिसके कारण गोडसे ने उनकी हत्या कर दी थी।

देश ;- इस देश में बापू अनेक है। आसाराम बापू हैं, मोरारी बापू हैं। बापूओं की फौज हैं और इनमें से लगभग सभी उस हिंदुत्व की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसके लिए संघी गिरोह जाना-पहचाना जाता है। कथावाचक बापूओं की इस भीड़ में कोई श्री 420 हैं, तो कोई अपनी आशिकी के लिए प्रसिद्ध और कोई बलात्कारी के रूप में जेल में भी है। हालांकि बापू महात्मा गांधी को भी कहते हैं, लेकिन इस शब्द का उच्चारण करते शायद ही उनकी छवि कभी दिमाग में उभरती हो। बापू के नाम से किसी संघी बापू का चेहरा ही मन में उभरता है।

किसी का नाम बदलकर हत्या करना और इस तरह कि कोई इस अपकृत्य को साबित भी न कर सके, संघी गिरोह का जाना-पहचाना खेल है। गोडसे के जन्म दिन पर महात्मा गांधी की मूर्तियों पर गोलियां दागने से इनका मन नहीं भरा है, तो गांधीजी की हत्या का यह एक और तरीका ढूंढ निकाला गया है। मनरेगा अब पूबारेगा हो गया है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का नाम संघी गिरोह ने अब बदलकर पूज्य बापू ग्रामीण रोजगार योजना कर दिया है। धीरे से योजना के बोर्डों से महात्मा गांधी की तस्वीर कब उतर जाएगी और कब आसाराम या मोरारी बापू चढ़ जाएंगे, पता भी नहीं चलेगा। नामों को बदलना और काम की गुणवत्ता को गिराना — इस धर्मनिरपेक्ष देश को हिंदू राज में बदलने की पहली निशानी है।

महात्मा गांधी और मनरेगा संघी गिरोह के निशाने पर हमेशा से रहे हैं। आजादी के आंदोलन ने इस देश में जिस गंगा-जमुनी संस्कृति का विकास किया, महात्मा गांधी उसके सबसे बड़े प्रतीक हैं। 1925 में अपने जन्म के बाद से आज तक जो साम्राज्यवाद के तलुवे चाट रहे हैं, उनकी महात्मा गांधी से जन्मजात दुश्मनी इसलिए हैं कि जब-तब वे अपनी अदृश्य और कृश काया के साथ इस संघी गिरोह की हिन्दू राष्ट्र परियोजना के खिलाफ आकर खड़े हो जाते हैं। संघी गिरोह गांधीजी को उनकी इस हरकत के लिए कभी माफ नहीं करेगा, बल्कि गालियां-गोलियां दागता ही रहेगा।

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना वामपंथ की देन है। 2004-09 के दौरान इस देश में वामपंथ के समर्थन पर टिकी कांग्रेस की सरकार थी। चाहती तो, वामपंथी पार्टियां इस समर्थन का फायदा उठाकर अपनी तिजोरियां भर सकती थीं, जमीन-ज़ायदाद बना सकती थीं और इस पर अरबों के हवामहल खड़े कर सकती थीं। पिछले 11 साल से भाजपा और आरएसएस और इस गिरोह से जुड़े दूसरे संगठन और लोग यही कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने कांग्रेस और मनमोहन सरकार पर दबाव डालकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून, सूचना का अधिकार और आदिवासी वनाधिकार कानून जैसे कानून बनवाए। उस समय विपक्ष में रहते हुए भी भाजपा इन कानूनों के पक्ष में नहीं थी। सत्ता में आने के बाद उसने इन कानूनों को कमजोर करने की कोशिश की है, लेकिन इन कानूनों को खत्म करने का साहस वह कभी जुटा नहीं पाई। इन कानूनों के कारण ही उसने उस समय भी कहा था कि वामपंथ कांग्रेस सरकार को ब्लैकमेल कर रही है।

बहरहाल, आज संसद से वामपंथ का दबदबा खत्म होने के बाद भी उसके दबाव में बनाए गए ये कानून भूत बनकर भाजपा के सामने खड़े हैं, जिसे वह न निगल पा रही है, न उगल पा रही है। एक समय था, जब भाजपा ने मनरेगा को गड्ढे खोदने वाली योजना बताते हुए औचित्यहीन करार दिया था। वह इसे कांग्रेस की विफलताओं का स्मारक बनाना चाहती थी। लेकिन यह दुनिया में रोजगार देने वाली सबसे बड़ी योजना साबित हुई और इतनी प्रभावशाली साबित हुई कि चाहते हुए भी अपने 11 सालों के राज में भाजपा इसे खत्म नहीं कर पाई। हां, बजट में हर साल कटौती करके, मजदूरी भुगतान में कई कई महीनों की देरी करके इसमें काम करने वाले मजदूरों को हतोत्साहित करके और नियमों में हेर-फेर करके ग्रामीणों को इस योजना के दायरे से बाहर धकेलने की कोशिश जरूर की है। एक जीवंत योजना को स्मारक में बदलने का भाजपा का यह तरीका है।

इस योजना के क्रियान्वयन में लाख खामियां हों, लेकिन इस योजना के कारण ही ग्रामीण गरीबों की आय में 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। स्वतंत्र और सरकारी अध्ययन बताते हैं कि इस योजना ने गरीब ग्रामीणों की सामूहिक सौदेबाजी की ताकत को बढ़ाया है और चाहे मनरेगा में उसे रोजगार मिले या न मिले, मनरेगा से कम मजदूरी दरों पर अन्यत्र काम करने से उसने इंकार किया है। प्रभुत्वशाली सामंती वर्ग इसे अपने लिए गरीब ग्रामीणों की सीधी चुनौती मानता है, जिसे भाजपा और उसके समर्थक पचा नहीं पा रहे हैं और इस योजना के कारण गांवों में मजदूर न मिलने का हल्ला मचाते हुए इसके खिलाफ खड़े हैं।

हमारे देश का सबसे धनी व्यक्ति 1236 करोड़ रुपए रोज कमा रहा है, जबकि मनरेगा में 8 घंटे हाड़-तोड़ काम करने वाले गांव के मजदूर को औसतन 200 रूपये ही मजदूरी मिलती है। सबसे गरीब और सबसे धनी व्यक्ति के बीच आय की असमानता 6.18 करोड़ गुना है। उल्लेखनीय है कि इस योजना के लागू होने के बाद से आज तक इसकी मजदूरी दर असंगठित अकुशल श्रमिकों के लिए तय न्यूनतम मजदूरी दर से भी बहुत नीचे बनी हुई है और देश का किसान आंदोलन इस योजना में काम देने और मजदूरी दर 600 रुपए करने की मांग को लेकर निरंतर आंदोलन कर रहा है। कोरोना जैसे कठिन संकटकाल में, जब शहरों से गांवों की ओर बड़ी भारी संख्या में पलायन हुआ था, यही योजना गरीब ग्रामीणों के जिंदा रहने का सहारा बनी थी और कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर्ज की गई थी। मनरेगा का यही चरित्र आज भाजपा के निशाने पर है।

यह एक योजना के नाम को बदलने का साधारण मामला नहीं है। दरअसल मोदी राज में एक अधिकारप्राप्त नागरिक को कृपापात्र प्रजा में बदलने की जो मुहिम चल रही है, यह नया नामकरण उसी की ओर एक बढ़ा हुआ कदम है। प्रसाद मिलना सौभाग्य की बात होती है। न मिले, तो भी नाराज नहीं होना चाहिए। इस योजना के नए नामकरण में ऐसा ही श्रद्धाभाव समाया हुआ है। इसी वर्ष 10अक्टूबर-14 नवम्बर के बीच एक माह में 27 लाख मजदूरों के नाम निष्क्रियता के आधार पर हटा दिए गए हैं, जबकि यह एक मांग आधारित योजना है। संदेश सीधा है : अब यह एक सार्वजनिक-सार्वभौमिक योजना नहीं, खैरात बांटने वाली योजना है, जिसके हितग्राहियों का चयन सत्ताधारी पार्टी की कृपा से किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि मूल योजना में महात्मा गांधी ग्रामीणों को मांगने पर रोजगार की गारंटी देते थे, लेकिन पूज्य बापू अब ऐसी कोई गारंटी देने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि नई योजना में ‘गारंटी’ शब्द हटा दिया गया है।

नई पूज्य बापू ग्रामीण रोजगार योजना के बारे में मोदी सरकार का पहला बड़ा प्रचार तो यही है कि रोजगार के दिनों की संख्या अब 100 से बढ़ाकर 125 कर दी गई है। यानी ग्रामीण मजदूरों को साल में ज्यादा दिनों तक काम मिलेगा। लेकिन कैबिनेट का यह निर्णय भरोसा इसलिए पैदा नहीं करता कि यह अब योजना अब काम की ‘गारंटी’ नहीं देती और पुराना अनुभव यह बताता है कि ग्रामीण परिवारों को गारंटी के बावजूद औसतन 35-40 दिनों का ही काम मिला है।

दूसरा बड़ा प्रचार है, न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाकर 240 रुपए प्रतिदिन कर दिया गया है। यह ठीक वैसे ही प्रचार है, जैसे मजदूरों पर श्रम कानूनों की जगह श्रम संहिता को थोपते हुए किया जा साथ है। वास्तविकता यह है कि संसद की स्थायी समिति ने न्यूनतम मनरेगा मजदूरी 400 रुपए प्रतिदिन करने की सिफारिश की है, जिसे ‘पूज्य बापू’ की आंखों से नज़रअंदाज कर दिया गया है। आज भी कई राज्यों में मनरेगा मजदूरी केंद्र सरकार द्वारा घोषित इस न्यूनतम मजदूरी से ऊंची है। मसलन, इस समय हरियाणा में मनरेगा मजदूरी 400 रुपए, तो छत्तीसगढ़ में 261 रूपये है। इसलिए मोदी सरकार द्वारा घोषित यह न्यूनतम मजदूरी कई राज्यों को इस रोजगार योजना केडी लिए मजदूरी कम करने या फिर लंबे समय तक उन राज्यों में चल रही मजदूरी दरों पर स्थिर रहने को प्रेरित करेगा। ग्रामीण रोजगार योजना के लिए केंद्र द्वारा घोषित 240 रुपए प्रतिदिन की मजदूरी विभिन्न राज्यों में अकुशल श्रमिकों के लिए घोषित न्यूनतम दैनिक मजदूरी से तो बहुत नीचे तो है ही। विभिन्न राज्यों द्वारा अकुशल श्रमिकों के लिए जो न्यूनतम मजदूरी घोषित की गई है, उसके अनुसार यह दिल्ली में सबसे ज्यादा 18456 रूपये प्रति माह है, तो जम्मू कश्मीर में बहुत कम मात्र 8086 रूपए प्रति माह है। विभिन्न राज्यों का औसत लें, तो यह अकुशल मजदूरों के लिए 12485 रूपये प्रति माह बैठता है। इस हिसाब से ग्रामीण रोजगार योजना के लिए घोषित मजदूरी दर अकुशल मजदूरों के लिए घोषित न्यूनतम मजदूरी के अखिल भारतीय औसत से 42 प्रतिशत कम है। दिल्ली की तुलना में तो यह 61 प्रतिशत कम है और जम्मू-कश्मीर की तुलना में भी 11 प्रतिशत कम है। इस प्रकार, गोदी मीडिया के सहारे मोदी सरकार द्वारा बहुप्रचारित दावों में थोड़ी-सी भी सच्चाई नहीं है।

सरकारी रिकॉर्ड ही बताते हैं कि मनरेगा में काम करने वाले अधिकांश आदिवासी हैं, दलित हैं, पिछड़े वर्ग के हैं और महिलाएं हैं। इसलिए रोजगार की गारंटी हटने और अपने समकक्ष अकुशल मजदूरों की तुलना में बहुत कम मजदूरी पाने से प्रभावित होने वाले लोगों में यही ज्यादा है। मनुस्मृति भी सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के उत्पीड़न और उनके शोषण की ही हामी है।

संघी गिरोह पर हमारे देश के गली-कूचों-सड़कों, शहरों-गांवों-स्टेशनों, योजनाओं और संस्थानों के नाम बदलने की सनक चढ़ी हुई है। वह इस देश को दुनिया के सामने ‘हिंदू लुक’ देने पर आमादा है। इससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में भी मदद मिलती है। लेकिन मनरेगा को पूबारे करने से कोई फायदा नहीं मिलने वाला, क्योंकि लोगों की जुबां पर यह योजना मनरेगा है और मनरेगा ही रहेगी। मनरेगा को गरीब ग्रामीणों के आर्थिक सशक्तिकरण का औजार बनाने और मनरेगा की तर्ज पर शहरी रोजगार गारंटी योजना शुरू करने का संघर्ष जारी रहेगा।

(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)