यदि सेवानिवृत्ति से पहले निर्णय लेने की यह प्रवृत्ति अनियंत्रित रही, संवैधानिक संस्थाओं के लिए आत्मचिंतन का आह्वान है।
कार्यपालिका न्यायपालिका विधाययिका में निर्णयों की संख्या नहीं, बल्कि उनकी गुणवत्ता, नैतिकता और दीर्घकालिक प्रभाव को प्राथमिकता देना जरूरी- एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र
गोंदिया – वैश्विक स्तरपर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में सत्ता का प्रयोग समय,नियम और उत्तरदायित्व से बंधा होता है। चाहे वह कार्यपालिका हो, न्यायपालिका या विधायिका, हर संस्था का उद्देश्य जनहित में निष्पक्ष, संतुलित और विवेकपूर्ण निर्णय लेना है। किंतु वर्षों से एक चिंताजनक प्रवृत्ति उभरकर सामने आई है, सेवानिवृत्ति से ठीक पहले या कार्यकाल समाप्त होने से कुछ समय पूर्व असामान्य रूप से बड़ी संख्या में आदेश, निर्णय और नीतिगत फैसले पारित करना। मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं क़ि यह प्रवृत्ति केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि विश्व की अनेक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में इस पर गंभीर बहस चल रही है।भारत में यह चलन अब केवल प्रशासनिक अनुभव या लोककथाओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च संवैधानिक संस्था ने स्वयं इसपर सार्वजनिक रूप से चिंता व्यक्त की है।यह स्थिति न केवल संस्थागत नैतिकता पर प्रश्न उठाती है, बल्कि निर्णयों की वैधता,निष्पक्षता और दीर्घकालिक प्रभाव पर भी गहरा संदेह पैदा करती है।कार्यपालिका में रिटायरमेंट सिंड्रोम-प्रशासनिक फैसलों की अचानक बाढ़भारत की कार्यपालिका संरचना,ग्राम स्तर के पटवारी कार्यालय से लेकर मंत्रालय स्तर तक,एक जटिल नौकरशाही तंत्र पर आधारित है। इस तंत्र में वर्षों तक अनेक फाइलें, प्रस्ताव और निर्णय लंबित रहते हैं। किंतु यह अक्सर देखा जाता है कि किसी अधिकारी के रिटायरमेंट के अंतिम दिनों में वही फाइलें असाधारण गति से निपटाई जाने लगती हैं, जिन पर वर्षों तक कोई निर्णय नहीं लिया गया।यह स्थिति कई सवाल खड़े करती है। क्या पहले निर्णय लेने की क्षमता नहीं थी? क्या अब निर्णय लेने के पीछे किसी प्रकार का दबाव, भ्रष्टाचार,हित या जल्दबाजी है ? या फिर यह मान लिया गया है कि रिटायरमेंट के बाद जवाबदेही सीमित हो जाएगी? या फिर अपने रिटायरमेंट की जिंदगी सुरक्षित करने के लिए हरे पीले का अधिक से अधिक अरेंजमेंट इसका सबसे बड़ा कारण है? प्रशासनिक नैतिकता के वैश्विक सिद्धांतों के अनुसार,निर्णय की गुणवत्ता समय से स्वतंत्र होनी चाहिए, न कि सेवा समाप्ति की तारीख से प्रेरित।
साथियों बात अगर हम पटवारी से मंत्रालय तक अंतिम दिनों की स्पीड गवर्नेंस का खासकर गांव स्तरपर भूमि रिकॉर्ड, नामांतरण, पट्टा वितरण जैसे मामलों में पटवारी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। यदि ऐसे मामलों में रिटायरमेंट के ठीक पहले तेजी से निर्णय लिए जाएं, तो उसके सामाजिक और कानूनी प्रभाव दशकों तक बने रहते हैं।यही स्थिति जिलास्तर, राज्य सचिवालय और केंद्रीय मंत्रालयों में भी देखी जाती है।अंतरराष्ट्रीय प्रशासनिक अध्ययन बताते हैं कि लास्ट-मिनट डिसीजन मेकिंग भ्रष्टाचार, पक्षपात और भविष्य के विवादों की संभावना को कई गुना बढ़ा देती है। इसलिए विकसित देशों में अक्सर सेवा समाप्ति से कुछ समय पूर्व निर्णय लेने की शक्तियों को सीमित कर दिया जाता है या उन्हें सामूहिक समीक्षा के अधीन रखा जाता है।

साथियों बात अगर कर हम न्यायपालिका में बढ़ती प्रवृत्ति न्याय का अंतिम ओवर इसको समझने की करें तो न्यायपालिका को लोकतंत्र का सबसे नैतिक और निष्पक्ष स्तंभ माना जाता है। न्यायाधीशों के निर्णय केवल कानूनी विवाद नहीं सुलझाते, बल्कि समाज के लिए नैतिक दिशा भी तय करते हैं।ऐसे में यदि न्यायपालिका में भी रिटायरमेंट से ठीक पहले असामान्य संख्या में फैसले सुनाने की प्रवृत्ति बढ़े, तो यह अत्यंत गंभीर चिंता का विषय बन जाता है।हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इसी संदर्भ में एक अत्यंत महत्वपूर्ण टिप्पणी की, जिसमें कहा गया कि कुछ न्यायाधीश क्रिकेट मैच के अंतिम ओवर में छक्के मारने की तरह फैसले सुना रहे हैं। यह टिप्पणी केवल एक रूपक नहीं, बल्कि एक गहरी संवैधानिक चेतावनी है।सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: न्यायिक आत्ममंथन का क्षण, भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की पीठ ने इस प्रवृत्ति पर स्पष्ट असहमति व्यक्त की। मध्य प्रदेश के एक जिला न्यायाधीश की याचिका पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की गई,जिन्हें सेवानिवृत्ति से मात्र 10 दिन पूर्व निलंबित कर दिया गया था।पीठ ने कहा कि कुछ न्यायाधीशों में रिटायरमेंट से पहले बहुत अधिक आदेश पारित करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है,जो न्यायिक प्रणाली के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि इस प्रकार की जल्दबाजी न्याय की गुणवत्ता और संस्थागत विश्वसनीयता को प्रभावित कर सकती है।सुप्रीम कोर्ट का रुख:अनुशासन बनाम सहानुभूति, सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित याचिका पर सीधे हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए न्यायाधीश को हाईकोर्ट जाने का निर्देश दिया।यह निर्णय अपने आप में एक संदेश है कि संस्थागत अनुशासन व्यक्तिगत परिस्थितियों से ऊपर है। न्यायपालिका का आत्मनियमन लोकतंत्र के लिए उतना ही आवश्यक है,जितनाकार्यपालिका या विधायिका का।यह रुख यह भी दर्शाता है कि सर्वोच्च न्यायालय अब केवल बाहरी संस्थाओं की निगरानी नहीं कर रहा, बल्कि स्वयं अपनी प्रणाली की कमजोरियों को पहचानकर सुधार की दिशा में कदम उठा रहा है।

साथियों बात अगर हम विधायिका में अंतिम क्षणों के कानून,वैश्विक अनुभव इसको समझने की करें तो,यह प्रवृत्ति केवल न्यायपालिका या कार्यपालिका तक सीमित नहीं है। विधायिका में भी अक्सर देखा जाता है कि कार्यकाल समाप्त होने से पहले सरकारें तेजी सेअध्यादेश संशोधन और विधेयक पारित कराती हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे लैम- डक लेजिस्लेशन कहा जाता है,जिसे अमेरिका यूरोप और लैटिन अमेरिका में भी गंभीर आलोचना का सामना करना पड़ा है।ऐसे कानून अक्सर पर्याप्त बहस, संसदीय समीक्षा और सार्वजनिक विमर्श के बिना पारित होते हैं, जिससे बाद में संवैधानिक विवाद और सामाजिक असंतोष पैदा होता है।
साथियों बात अगर हम संवैधानिक नैतिकता और संस्थागत विश्वसनीयता का प्रश्न को समझने की करें तो भारतीय संविधान केवल शक्तियों का वितरण नहीं करता, बल्कि संवैधानिक नैतिकता की भी अपेक्षा करता है। डॉ.भीमराव अंबेडकर ने स्पष्ट कहा था कि संविधान तभी जीवित रहेगा जब उसे लागू करने वाले लोग नैतिक होंगे। सेवानिवृत्ति से पहले निर्णयों की यह बाढ़ उसी नैतिकता को चुनौती देती है।यदि निर्णय लेने का समय व्यक्तिगत भविष्य,पदोन्नति,या उत्तरदायित्व से बचने की मानसिकता से प्रभावित हो, तो वह निर्णय चाहे कानूनी रूप से वैध हो, नैतिक रूप से संदिग्ध हो जाता है।
साथियों बात अगर हम अंतरराष्ट्रीय तुलना दुनियाँ क्या कर रही है? इसको समझने की करें तो,ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी जैसे देशों में वरिष्ठ अधिकारियों और न्यायाधीशों के लिए कूलिंग-ऑफ पीरियड या सीमित अधिकार की व्यवस्था है।कई देशों में रिटायरमेंट से पहले अंतिम छह महीनों में नीतिगत या बड़े निर्णय लेने पर विशेष समीक्षा अनिवार्य होती है।भारत में भी इस दिशा में गंभीर संस्थागत सुधारों की आवश्यकता है, ताकि निर्णय व्यक्ति केंद्रित नहीं, बल्कि प्रणाली केंद्रित हों।समाधान की दिशा:सख्त कार्रवाई और प्रणालीगत सुधारइस बढ़ते चलन को रोकने के लिए केवल नैतिक अपील पर्याप्त नहीं है।कार्यपालिका न्यायपालिका और विधायिका,तीनों को स्पष्ट नियम, पारदर्शी प्रक्रिया और जवाबदेही तंत्र विकसित करना होगा।रिटायरमेंट से पहले लिए गए बड़े निर्णयों की स्वतःसमीक्षा, सामूहिक निर्णय प्रणाली और सार्वजनिक पारदर्शिता इसके प्रभावी उपाय हो सकते हैं।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विशेषण करें तो हम पाएंगे कि अंतिम ओवर नहीं, लंबी पारी का लोकतंत्र-लोकतंत्र किसी एक व्यक्ति की अंतिम पारी नहीं, बल्कि संस्थाओं की दीर्घकालिक विश्वसनीयता पर आधारित होता है। यदि सेवानिवृत्ति से पहले निर्णय लेने की यह प्रवृत्ति अनियंत्रित रही,तो यह शासन व्यवस्था की आत्मा को कमजोर कर देगी।सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी केवल एक केस तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सभी संवैधानिक संस्थाओं के लिएआत्मचिंतन का आह्वान है। समय आ गया है कि निर्णयों की संख्या नहीं, बल्कि उनकी गुणवत्ता, नैतिकता और दीर्घकालिक प्रभाव को प्राथमिकता दी जाए,ताकि लोकतंत्र अंतिम ओवर के छक्कों से नहीं, बल्कि संतुलित और जिम्मेदार खेल से जीता जाए।

-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र 9284141425