लेखराज मोटवानी/रीवा (म.प्र.) : दुष्टो का विनाश, साधुओं को परित्राण और धर्म संस्थापना हेतु निज-इच्छा से परमात्मा समय-समय पर साकार रूप धारण कर पृथ्वी पर आते है। ऐसे ही कलयुग के कठिन काल मे स्वयं भगवान भोलेनाथ उदासिनाचार्य श्रीचन्द्र जी के रूप धरा-धाम पर अवतरित हुए। जैसा कि हमारे यहां कहावत है कि “होनहार विद्वान के होत चिकने पात” भगवान श्रीचन्द्र जी पर ये कहावत को अक्षरशः सत्य होती है। उक्त उद्गार अखिल भारतीय सिंधु सन्त समाज ट्रस्ट के राष्ट्रीय महामंत्री श्रद्धेय श्री स्वामी हंसदास जी महाराज ने भगवान श्री श्रीचन्द्र जी की बाल-लीलाओं का वर्णन करते हुए व्यक्त किये।
स्वामी जी ने आगे बताया-भगवान श्रीचन्द्र जब एक मास के हुए तो उन्होंने बाललीला की। एक दिन आपने दिन भर दूधपान नहीं किया। नेत्र मूंदे मस्त पड़े रहे। शाम को माता को बड़ी चिन्ता हुई। व्याकुल हो अपने पति श्री गुरु नानकदेव से सब हाल कहा।
तब नानकदेव जी ने कहा-तुम चिन्ता छोड़ दो। ये पूर्ण पुरुष करन कारण जगत् के स्वामी स्वयं भगवान शंकर हैं। वो अपने आत्म स्वरूप के ध्यान में लगे हुये हैं। इनकी गति साधारण पुरुष नहीं जान सकता।
यह सुन सुलक्षिणी जी चुप हो गई किन्तु मातृ स्नेह के कारण मन में संकल्प विकल्प का तारतम्य लगा ही रहा। अर्द्ध रात्रि के बाद जब माता को नींद लगी। तो क्या देखती है…मेरा पुत्र एक बड़े सिंहासन पर उच्च स्थान में विराजमान है। चारों ओर साधु सन्त, देवता, नाग, गंधर्व, किन्नर, यक्ष आदि पूजा स्तुति कर रहे हैं। वहीं पर अपने गृह के सब लोग भी खड़े हैं। नवाब दौलतखान भी एक कोने में हाथ जोड़े खड़ा है। विशाल दरबार लगा हुआ है। माता को देख के भगवान् श्रीचन्द्र जी कहने लगे- हे माता! संसार माया जाल है. माया के फंद (जाल) से वही छूटता है। जिस पर ईश्वर की कृपा होती है। ईश्वर चिन्तन (भजन) से बढ़ कर और कोई उपाय संसार सागर पार होने का नहीं है।
मैं हमेशा धर्म- रक्षार्थ इस संसार में आया करता हूँ। इस बार जो यह अवतार हमने तुम्हारे घर धारण किया है। सो उदासीन साधु के रूप में रह कर सब को उपदेश द्वारा सीधे मार्ग में लाना है, हिन्दू धर्म इस समय संसार में क्षीण रूप में दिख रहा है। उसमे उपदेश रूपी अमृत पाय के हृष्ट पुष्ट करना है। शब्दों का मेघ वर्षायेंगे । जो कोई उस उपदेशानुसार चलेगा, दुःख पाप सन्ताप उसके नष्ट हो कर सुखी होगा। और हम ने लोक मर्यादा रखने तथा तुम्हारे कहने पर बालक रूप धारण किया है। सो हँसने खेलने की तुम चिन्ता नही करना । यह देह तो निमित्त मात्र की है। यह सुन माता हाथ जोड़ कर बोली- आप संसार के उत्पन्न पालन संहार करता हैं। मैं तो आपकी माया से भूली हुई आपको अपना पुत्र समझे बैठी थी। आप सर्व सृष्टि के माता पिता हैं, मेरा सब अपराध क्षमा करना मैं आप की शरण हूं।
इस प्रकार जब माता ने अपना अपराध क्षमा कराया, उसी समय निद्रा खुल गई, प्रातःकाल हो गया था।
माता को कुछ समझ मे नही आ रहा था। तुरन्त जाकर पुत्र को देखा तो नजारा देख कर आश्चर्य चकित हो गयी।
बालक उसी प्रकार नेत्र मूंदे सो रहा है। और स्वप्न में जो देवताओं ने पूजा की थी, वो सब चिन्ह उसके शरीर पर दिख रहे थे, जैसे मस्तक में चन्दन अक्षत् लगा है गले में पुष्पों की माला पड़ी है। माता विस्मय में आकर पुत्र को गोद मे उठाकर माथा चूमने लगी।
भगवान शंकर ने पुनः अपनी मोहनी माया को माता की बुद्धि में दाल दी, जिससे रात्रि वाला उपदेश माता को भूल गया और पुत्र वाला प्रेम उमड़ पड़ा।
भगवान श्रीचन्द्र जी की एक और बाल-लीला अति लुभावनी है।
भगवान जब पांच वर्ष के हुए। तो एक दिन सुल्तानपुर में उनके घर मे एक भिक्षु आया और आवाज लगा कर भिक्षा की मांग करने लगा।
माता सुलक्षणी और बुआ नानकी अंदर गृहकार्य में व्यस्त थी। इसलिए उनको दरवाजे पर आए भिक्षु की आवाज सुनाई नही दी।
उस समय भगवान श्रीचन्द्र अपने मित्रों के साथ खेल रहे थे। जब उनका ध्यान भिक्षु पर गया। तो तुरंत दौड़कर घर के दरवाजे पर आकर खड़े हो गए। और भिक्षु को बोलने लगे- बाबा आप थोड़ी देर रुको, मैं आपके लिए कुछ ले कर आता हूँ। आप खाली हाथ लौट नही जाना। इतना कहकर बालक श्रीचन्द्र अंदर चले गए।
वो भिक्षुक बालक श्रीचन्द्र की ओर देखता ही रह गया। मन मे सोचने लगा- ऐसा तेजस्वी बालक तो मैंने आज तक नही देखा। क्या मधुर आवाज है, क्या नूरानी सूरत है। काश… इसका दर्शन मुझे रोज मिले।
भिक्षुक इन्ही ख्यालों में ही था कि बालक श्रीचन्द्र मस्त चाल में दोनों हाथों में भरकर कुछ लेकर भिक्षुक के सामने खड़ा हो गया। परन्तु भिक्षुक को जरा सा भी ध्यान नही रहा कि मेरे सामने कोई खड़ा है।
तब बालक श्रीचन्द्र जी धीमी और मधुर आवाज में कहा- बाबा अपना भिक्षा-पात्र आगे बढ़ाए। उस आवाज से भिक्षु जैसे गहरी नींद से जागा। और उसने अपना भिक्षा-पात्र आगे किया।
बालक श्रीचन्द्र ने जैसे अपने हाथों को आगे बढ़ाया, भिक्षु ने देखा कि बालक के हाथों में तो अनमोल हीरे, जवाहरात, मोती और माणिक है। जिससे उस बालक के नन्हे-नन्हे हाथ जगमगा रहे थे। ये नजारा देखकर वो अचम्भे में पड़ गया।
अब तो भिक्षुक को ये यकीन हो गया कि ये कोई साधारण बालक नही है, कोई अवतारी पुरुष है।
हाथ जोड़कर भिक्षु निवेदन करने लगा- मैं बहुत साधारण सा इंसान हूँ। भिक्षा से अपना और परिवार का पेट भर लेता हूँ। मैं इतने कीमती हीरे जवाहरातों का क्या करूँगा। मेरे पास ये सब देख कर मुस्लिम हाकिम तो मुझे चोर समझकर जेल में डाल देंगे। आप तो मुझे भिक्षा में थोड़ा सा आटा दे दीजिए।
बालक श्रीचन्द्र ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं जब किसी को कुछ दे देता हूँ तो फिर उसको वापिस नही लेता हूँ, अतः कृपा करके आप ये भेंट स्वीकार करें।
बाहर से ये आवाजें सुनकर माता सुलक्षणी और बुआ नानकी भी बाहर आ गयी।
सारा हाल सुनकर और भिक्षु के पात्र मे अपार धन देखकर बुआ नानकी को अंदेशा हो गया, कि जरूर ये चमत्कार शिवस्वरूप भगवान श्रीचन्द्र का ही है।
एकदम बालक श्रीचन्द्र को गोद मे लेकर उससे पूछने लगी- तुम ये अनमोल हीरे मोती माणिक कहाँ से ले आये। बालक बुआ को उस जगह पर ले आया और बताया कि इस बोरी से निकाल कर दिया है।
बुआ नानकी ने उस बोरी में देखा कि इसमें तो शोले भरे है। सारी महिमा समझकर बाहर आई और भिक्षु से बोली-इस बालक ने कृपा कर आपको जो कुछ भी दिया है। वो आपका ही नसीब है। हम वापिस नही ले सकते।
आज के बाद आपको जीवन भर भिक्षा नही मांगनी पड़ेगी। और आपको मुस्लिम हाकिमों से डरने की भी कोई आवश्यकता नही है। आपको जीवन मे अब किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नही होगी।
इतना सुनकर भिक्षु खुश हुआ और भगवान श्रीचन्द्र जी का गुणगान करता अपने घर की ओर रवाना हुआ।
भगवानश्री की बाल लीलाओं का बखान करते हुए स्वामी जी ने कहा-जगद्गुरु भगवान श्रीचन्द्र जी के चौखट पर जो जीव दीनता और नम्रता के साथ आता है। भगवान श्रीचन्द्र जी उसके जीवन के सारे कष्टों को दूर कर उसकी दीनता का हरण कर लेते है। औऱ उसका लोक-परलोक संवार देते है। परन्तु मनुष्य कई बार अपने लोभ के कारण और अधिक की चाह में पाप-कर्म कर बैठता है। और अपने हाथों से अपने जीवन को अनेक प्रकार के कष्ट और विघ्नों से भर लेता है। ऐसे मे बाबा श्रीचन्द्र जैसे अवतारी महापुरुष थोड़ा चमत्कार कर के उसको लोभ-कर्म से बचा लेते है और फिर उपदेशामृत पिलाकर उसके जीवन के सारे विघ्नों और कष्टों को हर लेते है। ऐसी ही एक लीला भगवानश्री ने बाल्यकाल में की। बाल्यावस्था में एक दिन भगवान श्रीचन्द्र जी अपने बाल-सखाओं के साथ बाल-लीला कर रहे थे।
तभी एक चोर वहाँ से गुजरा। उस चोर की नजर बाबा श्रीचन्द्र जी के दोनों हाथों में पहने सोने के कंगनों पर पड़ी।
चोर ने बाबा श्रीचन्द्र जी से वो कंगन उतार कर देने को कहा। भगवान श्रीचन्द्र जी ने तुरंत हँसते-हँसते एक कंगन उतारकर उस चोर को दे दिया।
पर चोर को उससे तृप्ति नही हुई और बाबा श्रीचन्द्र जी के दूसरे हाथ से कंगन उसने स्वयं ही उतार लिया।
कंगन उतार कर चोर जैसे ही अपने घर की ओर बढ़ा तो उसकी आँखों की रोशनी गायब हो गयी। और वो एक कदम भी आगे बढ़ ही नही पा रहा था। पत्थर की मूर्ति की तरह वो खड़ा ही रह गया।
अचानक आयी इस मुसीबत को भांपकर लोभी चोर ने मन ही मन ये समझ लिया कि ये सब मेरे लोभ के कारण ही हुआ है।
क्योंकि उस बालक ने एक कंगन तो मेरे मांगने पर स्वेच्छा से दे दिया परन्तु मैंने लोभवश उसके हाथ से दूसरा कंगन जबरदस्ती उतार लिया है। जिसकी वजह से आज मेरी ये हालत हुई है।
अपनी गलती का अहसास होते ही वो चोर वापिस लौटा और दोनों कंगन लौटाते हुए क्षमा-याचना करने लगा।
भगवान श्रीचन्द्र जी मुस्कराते हुए बोले- लोभ ही सभी पापों की जड़ है। अतः आज के बाद कभी लोभ मत करना।
ऐसा कहते हुए दोनों कंगन वापिस लौटा कर भगवान श्रीचन्द्र जी ने उस चोर को शुभाशीष प्रदान किया, जिससे चोर के आँखों की ज्योति भी वापिस आ गयी।
ये सब चमत्कार देखकर पश्चाताप के आँसुओ के साथ उस चोर ने जीवन में कभी भी लोभ न करने का प्रण बाबा श्रीचन्द्र जी के समक्ष लिया।
ऐसे सम्पूर्ण श्रुष्टि के परम् हितकारी अवतारी पुरुष शिवस्वरूप उदासिनाचार्य श्री श्रीचन्द्र भगवान जी के पावन चरण-कमलों में शतकोटि नमन वन्दन।